Monday 3 September 2012

आधुनिक कविता...!



झूठेखोखले….प्रसंग !

जबर्दस्ती थोपी हुयी….विषय-वस्तु!

लडखडाती...बहकती……..…लय !
खुले गलियारों में बिखरे
सूखॆ ,नीरसबोझिल काले शब्द!

कहीं ये आधुनिक कविता के
कुछ और नाम तो नहीं ?
! !
! !
! !
दिनभर खट कर आये हैं हम
चलें कुछ आराम करें ………..!

यह विमर्श तो ऐसे ही चलता आया है !
चलता रहता है….
और चलता रहेगा…………….!

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