Wednesday 13 February 2013

गज़ल


कैसी है बेख़बरी, किस खलजान मेम है
अपनी तलवार जब अपने म्यान में है।

वो जो खुरूँचते हैं माँग का सिंदूर यहाँ
उन्हीं का बोल-बाला सारे जहान में है।

जमाना हो चला है आज मेरा दुश्मन
न जाने कैसा ख़ार मेरी जबान में है।

ढ़ँढ़ने वालों को दुनिया भी नयी मिलती है,
जो हाशिल करो इल्म तो लौहे-क़लम कयाम में है।

हम नहीं हैं फ़कत हाँड़-माँस के पुतले दोस्तों
तू गौर से देख ज़रा हर्फ़-ब-हर्फ़ खुदाई इंसान में हैं।

तल्खियाँ सब उल्फ़त में बदल जायेंगी,
गर शौक-ए-गुफ़्तगू हमारे दरम्यान में है।

No comments:

Post a Comment